एक समुदाय / क्षेत्र जहाँ पर निरन्तर आवश्यकता के अनुरूप भौतिक विकास न हो पलायन का मुख्य कारण बन जाता है। कवयित्री सुनीता ध्यानी जी ने अपनी पलायन पर हिन्दी कविता पहाड़ों की दुश्वारियाँ में भौतिक विकास से वंचित पहाड़ की गरीबी अथवा गरीब का जीवन पर जो मर्म प्रस्तुत किया है वह भौतिक विकास न होने के कारण पहाड़ की गरीबी , पहाड़ का जीवन, बेरोजगारी के साथ -साथ हमारी संस्कृति को भी दर्शाता है।
-ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न"(एडमिन/लेखक )
पलायन पर हिन्दी कविता पहाड़ों की दुश्वारियाँ
प्रस्तुत है कवयित्री सुनीता ध्यानी जी की पलायन पर हिन्दी कविता पहाड़ों की दुश्वारियाँ -
पहाड़ों की दुश्वारियाँ
पसरी पहाड़ों में हैं अभी भी;
वे दुश्वारियाँ जिन्हें हम सह ना सके थे
और जाके मैदानों में जा बसे थे।
वे उतार और चढ़ाव; वे पथरीली राहें
फूलती साँसे और चुभती हवाएँ;
वे गरीबी और
हाथ-पैरों की खुरदुरी लकीरें
पसरी पहाड़ों में हैं अभी भी........
वे टपकती छतें और उखड़ती दीवारें
गोबर के ढेर; कँटीली झाड़ियाँ,
वो पसीने में नहाना; मिट्टी में सनना
तब कहीं जाकर रोटी कमाना
पसरी पहाड़ों में हैं अभी भी.......
वे गाएँ और बकरियाँ,
स्कूल न जाकर उनको चराना
खाई में फैली चारे की पत्तियाँ,
उन्हें फिर गठ्ठर बनाकर के लाना,
पसरी पहाड़ों में हैं अभी भी....
'कठोरता' पहाड़ की सब थे समझते
तभी तो जाके मैदानों में बसे थे
चले तो गए थे सुविधाओं के नाते
पर अब ढोल दूर के सबको सुहाते
पलायन का गाना फिर गुनगुनाते।
सम्बन्ध
इस कविता एवं पोस्ट का पूर्णतः कॉपी राइट किया जा चुका है। कविता एवं पोस्ट पूर्णतः कॉपी राइट एक्ट "©®" के अधीन है। इस कविता एवं पोस्ट को बिना अनुमति के व्यवसायिक प्रयोग करने पर कॉपी राइट क्लेम किया जायेगा।
पलायन पर हिन्दी कविता पहाड़ों की दुश्वारियाँ का संक्षिप्त आशय
गाँव से पलायन कर गए लोग वर्षों तक बाहर शहरों में रहने के बाद आज भी गाँवों को याद तो करते हैं मगर भूल जाते हैं कि वे कठिनाइयाँ गाँवों में अभी भी ज्यों की त्यों हैं, जिन कठिनाइयों की वजह से वे गाँवों को छोड़कर गए थे। यहाँ का जीवन अभी भी कठिन है, केवल घूमने के उद्देश्य से जो आते हैं उनके लिए यह सुख देने वाले सुंदर पहाड़ हैं।
पहाड़ों में विकास की कमी
जो लोग बाहर जाकर या फिर यहीं रहकर भी कुछ धन अर्जित कर पाए हैं उन्होंने गाँव में अपने मकान बड़े, ऊँचे और सुविधाजनक बनाए फिर उन पर ताला जड़कर शहरों में वापस चले गए। जबकि रहवासी अपने पुराने, टूटे मकानों में किसी तरह रह पा रहे हैं। ऊँची शिक्षा और रोजगार का अभाव युवा पीढ़ी को यहाँ रहने नहीं देता और जब तक वे यहाँ रहने की सोचते हैं तब तक शहरों में रहने के आदी हो जाते हैं।
विनती
आशा करते है ब्लॉग में आपको कवयित्री सुनीता ध्यानी द्वारा रचित प्रेरणादायक कविता पसंद आयी होगी। कविता को अधिक से अधिक शेयर करते हुए , आपकी राय एवं सुझाव ब्लॉग को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होंगी।
- ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न " (एडमिन / कवि )
मैं गया दर में ,
एक उम्मीद लिए बाहर खड़ा कि जाय मुझे।
सपना टूट गया दर में ,
निकल गया राह पर कि मुसाफिर का साथ मिल गया मुझे।।
मुसाफिर पर पूरी कविता विस्तृत सारांश सहित पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें Click Here
अन्य हिंदी कविताओं का सम्पूर्ण सारांश सहित पढ़ने अथवा यूट्यूब पर देखने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करे -
0 Comments