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अजन्मी | कन्या पर कविता | कन्या के मन की भावना | अनीता ध्यानी

इस कविता में लेखिका एक बालिका के रूप में जन्म लेने के पश्चात खुद के वजूद को तलाशती है। तो बेटी, बहिन, पोती, पत्नी, मां, भाभी, देवरानी, जेठानी, ननद आदि कई रिश्तों के जरिये ही खुद का परिचय पाती है । किन्तु वह स्वतंत्र रूप से कौन है ? क्यों है ? ये नहीं जान पाती। खुद को बिना अस्तित्व के पाती है। इसलिए खुद को अजन्मी कहती है। 

                                                                                               - कवयित्री अनीता ध्यानी ( अनि ) 

अजन्मी

मैं जन्मी पर, अजन्मी ही रही।

 गर्भ में थी , गर्भ में ही रही।

जन्मी भी मैं, पर जन्मी ही नहीं।

जो जन्मी, बेटी थी वो

बहिन थी, पोती भी थी वो।

मां के गर्भ से ,

रिश्तों के गर्भ में गयी।

मां की नाभि से छूटी तो,

रिश्तों की नाभि से जुड़ी,

अपनी सांसों के लिए घुटती ही रही।

पहचान अपनी खोजती ही रही।

डूबती उतरती रही ,

रिश्तों के भंवर में।

तलाशती रही वजूद अपना

मगर जन्म न ले पायी

अजन्मी ही रही मैं ।

छटपटाती रही ,

जन्म लेने के लिए।

रिश्तों के गर्भ में।

मगर अजन्मी ही रही ।

जन्मी ही नहीं मैं।।

            - कवयित्री अनीता ध्यानी ( अनि ) 


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