आज की इस कड़ी में पढ़िए कवि अरविन्द कुमार जी द्वारा रचित जिंदगी पर हिंदी कविता "बरसाती बुढ़ापा"। वर्तमान समय अथवा जीवन वास्तव में निरन्तर परिवर्तनशील होता जा रहा है। एक तरफ दौड़ भाग संघर्ष वाली यह जिंदगी वास्तव में प्रतिस्पर्धा , मान -सम्मान , स्वाभिमान , यश तक ही सीमित होती दिख रही है और दूसरी तरफ मनोरंजनात्मक दुनिया की बात करे तो इस मनोरंजनात्मक दुनिया में कई घर , परिवार और बच्चों का भविष्य अन्धकार में फँसते हुए साफ दिख रहा है। जिसका अहसास एसे घर , परिवार और बच्चों को बिल्कुल भी नहीं हैं। समय के साथ मनोरंजन के साधन एवं विषय वस्तु भी आधुनिक हो गए है। वर्तमान समय में मनोरंजन अथवा प्रतिस्पर्धा की समय सीमा बढ़ गयी है। जिसके कारण हम अपने परिवार एवं बच्चों को उचित समय नहीं दे पाते हैं। बुजुर्ग के अनुभव , अनुशासन एवं व्यवहार को हम समझना ही नहीं चाहते है। जीवन में प्रतिस्पर्धा , मान -सम्मान , स्वाभिमान , यश का होना बहुत आवश्यक है किन्तु इसका यह आशय नहीं होना चाहिए कि हम समाज , परिवार एवं बुजुर्ग के अनुभव , अनुशासन एवं व्यवहार को छोड़ दे। Hindi poem on struggle "barsati budhapa" is written by Sri. Arvind kumar worked at education depratment as a Teacher. his poem is belong on life also.
- ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न" ( एडमिन /कवि )
जिंदगी पर हिंदी कविता "बरसाती बुढापा"
सर सर सर जो घुला कुहाँसा
धुंधले खेत खलिहान,
जाने कितने थपेड़े खाकर
टिका हुआ था एक मकान।
झर झर झर पानी की फुहार
झुर झुर झुर मन की बयार,
तर तर तर बरसे बूँदें,
सुर सुर सुर ठंडक की बहार।
सूना दरवाजा पत्थर पर अटका
बंद होने में झिझक रहा है।
सीलन भरा अंधेरा कमरा
आवाज को तरस रहा है।
फिकी रोशनी चौखट पर आकर
पूछ रही दरवाजे से
अन्दर भी है क्या कोई
या मैं भी लौटूँ चुपके से।
टपक टपक कड़ियों से बूंदें
भरते थाली लोटे,
किससे करे शिकायत वो जब
अपने सिक्के खोटे।
सीलन लेकर माटी फूली,
भीगो रही तस्वीरों को
फांके धूल से सने फ्रैम
कचोट रही तकदीरों को ।
लतड़े पतड़े लेकर बिस्तर में
बैठा ताके आँगन को,
गुजरी बारिश की अफरा-तफरी
ढूँढ रहा उस आनंद को।
छोटी खिड़की से दिखे जहाँ तक,
यादें कुरेदता उन बातों की।
पकड़-झगड़ खिड़की के लिए
किलकारी नाती-पोतों की।
सुलह कराता, बारी लगाता
सबको खिड़की से बाहर दिखाता,
कैंसे उगते धान खेत के,
बारिश की कहानी किस्से सुनाता।
अब जाने क्यों गड़-गड़ से
डर क्यों इतना लगता है।
जल्दी लौटोगे आंगन में,
सोच के सांसे भरता है।
- कवि अरविन्द कुमार
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जिंदगी पर हिंदी कविता "बरसाती बुढ़ापा" के बारे में
यहाँ कोई नहीं है बुजुर्ग का सहारा
वह उन संघर्ष , पलों को याद करता है। जब उसका आंगन भरा-पूरा था। वह फिर से अपनों के संग होने की उम्मीद में सांस भरता है। लेकिन जिनके वियोग में वह है। उनके बहुत सारे कारण है कि वह संग नहीं हो सकते। कौन सुनेगा उसके बार-बार के दोहराते किस्से ? कौन बार-बार उसे संभालेगा। कौन बार-बार उसके पसंद के पकवान बनाएगा। कौन उसके पुराने तरीकों से काम करेगा। आज के इस तेजी से चलते समय पर कौन उसकी बूढी उंगली पकड़े उसकी थकान मिटाएगा।
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- कवि अरविन्द कुमार
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2 Comments
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ReplyDeleteBahut bahut.. Dhanywad... apne blog me jagah dene ke liye.. aapki mehanat w lagan..kaabile taarif he..
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