नारी की भावना पर हिन्दी कविता "मुझे समझ लो ना " पुरुष समाज के प्रति नारी मन की भावना को प्रदर्शित करती है। एक नारी के प्रति पुरुष का प्रेम नारी शक्ति एवं नारी सम्मान को जन्म देता है। नारी के प्रति पुरुष का प्रेम एक पत्नी , माँ, बहिन और बेटी के रूप में अलग -अलग एवं पुरुष के प्रति नारी का प्रेम पति , पिता , भाई एवं पुत्र के रूप में अलग -अलग एक सभ्य समाज का निर्माण करता है। इसके विपरीत पुरुष का असन्तुलित व्यवहार महिला उत्पीड़न का कारण बन जाता है। महिला दिवस पर शत प्रतिशत पुरुष समाज द्वारा नारी के प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है किन्तु धरातल पर नारी के प्रति पुरुष समाज के व्यव्हार की कहानी कुछ और ही कहती है।
- ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न" (एडमिन / कवि )
कवयित्री सुनीता ध्यानी द्वारा रचित नारी की भावना पर हिन्दी कविता "मुझे समझ लो ना " प्रस्तुत है।
"मुझे समझ लो ना "
महिला दिवस पर
महिला उत्थान पर
मुझे कुछ नहीं कहना,
क्योंकि मैं महिला हूँ ना !
मैं चाहती हूँ मेरे लिए,
तुम कुछ कहो दिल से,
क्योंकि तुम पुरुष हो ना !
पूर्वाग्रहों को छोड़कर,
मेरे आग्रहों को भूलकर,
बहन बेटियों के लिए कुछ कहो ना !
मेरे सौन्दर्य की प्रशंसा,
न कुछ चाहने की अनुशंसा,
इंसान होने के नाते कहो ना !
न कोई कविता कहो
न बड़ा भाषण ही पढ़ो
बस मेरे जैसा अनुभव करो ना !
सींचते हैं कितना कुछ इधर
मेरे बेबात छलकते आँसू
अपने आस पास जरा देख लो ना !
सैलाब तीव्रतम वेदना का,
उमड़ता मेरे अन्तस में तब,
सूखना मेरे आँसुओं का याद तो करो ना !
तुम्हारे होठों में मुस्कान जितनी ही,
नमी होती है मेरी आँखों में सदा,
नम आँखों से आज तुम भी जरा मुस्कराओ ना !
चुप बोल मेरे आज होंगे,
न आँसुओं की धार होगी,
वेदना को तुम स्वयं ही आज मेरी नाप लो ना !
शिकायत नहीं जमाने से मुझे,
मगर घूरती निगाहों को,
जरा आज तुम भी देख लो ना !
मेरा स्त्री होना ही सम्मान है मेरा
तुम पुरुष रूप में रहो मर्यादित
इस नए दौर को एक नया नाम दो ना !
इस नए दौर को एक नया नाम दो ना ! !
"©®"
कवयित्री - सुनीता ध्यानी
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नारी की भावना पर हिन्दी कविता का साराँश
स्वभाव व व्यवहार की भिन्नता के कारण मनुष्यों में आपस में मतभेद होना स्वाभाविक है... इसके लिए किसी भी मनुष्य के स्त्री होने या पुरुष होने को दोषी नहीं माना जा सकता... हम मनुष्यों को कोई हक नहीं बनता कि स्त्री-पुरुषों के लिए शिक्षा, नौकरी, व्यवहार या हँसने-बोलने सम्बन्धी अलग- अलग मापदण्डों का निर्धारण हो... हाँ रुचि अनुसार सब अपने अपने काम, पहनावा, श्रंगार चुन सकते हैं मगर इसे शील-स्वभाव-कर्तव्य का पर्याय नहीं बनाना चाहिए।
काश! कि ऐसा दौर चले कि महिला जब पुरुष से बात करे तो उसे अतिरिक्त सावधानी रखने की जरूरत ही न पड़े, पुरुष उससे बस एक मनुष्य की तरह व्यवहार करे...!
प्रेमगीत पत्नियों/पतियों के लिए लिखे जाएँ या फिर उस प्रेयसी के लिए जिसे आप अपने व्यवहार से तनिक भी दुखी नहीं करना चाहते| यहाँ तक कि यदि आपको आभास है कि जिसके लिए आप परिणय गीत लिख रहे हैं, कह रहे हैं वह आपके इस व्यवहार से नाराज हो सकता है तो बस केवल लिखिए/ कहिए बस उसे बिना बताये प्रेम निभाते रहें... न कि जबरदस्ती उसे अपनी बात मानने पर मजबूर करें!
कवयित्री - सुनीता ध्यानी
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विनती
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- ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न " (एडमिन / कवि )
रिश्तों की सुन्दर डोर हाथ में ,
बन्धन एक सवेरा बना।
कदम बढ़ते गए जिनके हर रोज ,
उनका मंजिल में नया डेरा बना।।
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