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बढ़ती जनसंख्या - घटते संसाधन | जनसंख्या वृद्धि पर कविता | अनीता ध्यानी

बढ़ती जनसंख्या देश एवं दुनिया के लिए एक प्रमुख समस्या बनी हैं। बढ़ती जनसंख्या के साथ हमारे संसाधनो की पूर्ति प्रयाप्त नहीं हो पा रही है। फलस्वरूप उच्च गुणवत्ता के संसाधन बाजार से धीरे -धीरे लुप्त होते जा रहे है। अपनी आवश्कताओ की पूर्ति के लिए मनुष्य अवैद्य कार्यो की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या के कारण अशिक्षा एवं अपराध बढ़ते जा रहे है। बढ़ती जनसंख्या के कारण विकास के नाम पर पेड़ -पौधों  को काटकर सड़क , शहर बसाये जा रहे है। जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। आवश्यकता के अनुरूप घटते संसाधन के कारण निरन्तर कई विकार उत्पन हो रहे है। किन्तु मनुष्य इस बात को समझ नहीं पा रहा है। हमें जनसंख्या वृद्धि पर व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से अवश्य ही चिंतन एवं मनन करना चाहिए। इसी विषय पर कवयित्री अनीता ध्यानीअनि ) द्वारा रचित कविता " बढ़ती जनसंख्या - घटते संसाधन " समाज के लिए प्रेरणात्मक सन्देश प्रदान करती है। 

                                                                         -ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न "(कवि /एडमिन )


                       
 
"बढ़ती जनसंख्या, घटते संसाधन"

बढ़ते मानुष,बढ़ते विकार।
करे प्रकृति नित हाहाकार।


उठाये कैसे ये बढ़ता भार।
कटते पेड़ ,बढते घरद्वार।


लुटती धरा चुभती कटार ।
सम्भाल सके न ,भू ये प्रहार।


लगते पेड़ ,हजारों पार।
बचते नहीं ,मगर दो चार।


सूखी झीलें ,सूखे धार। 
सूख रही मीठी जलधार।


फिर भी करते तरु का संहार।
कैसे लगे अब बेड़ा पार।


उठता धुआं,धुआंधार।
वायु सिसकती है बेजार।


दानव बन करते आहार।
ठन जाएगी प्रकृति संग रार।


करे धरा अब तेरा प्रतिकार।
देती चेतावनी तुझे बार-बार।


सब धर्मों संग एक व्यवहार।
नियम एक हो एक विचार ।


एक बच्चा और वृक्ष चार।
वरना जीवन जाएगा हार।


चला साईकिल मत दौड़ा कार।
भौतिकता से न इतना कर प्यार।


क्यों टपकाये तू इतनी लार।
रोयेगा एक दिन मनु जार- जार।


समझाऊं तुझे मैं बार -बार।
बचा संसाधन,कर लालच पर वार।


समझ जा पगले जीवन का सार।
नासमझी से न जीवन हार।

                   -  कवयित्री अनीता ध्यानी (अनि)

 

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 - ईश्वर तड़ियाल "प्रश्न"(कवि /एडमिन )

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